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न पढ़ते हुए कुछ भी / उपेन्द्र कुमार

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वह एक अच्छा दिन था
और वह एक अच्छी यात्रा

जनवरी के अपराह्न का सूरज
ठीक उतना ही गर्म था
जितनी माँ की गोद
उतना तेजस्वी
जितना पिता का चेहरा

रेल के डिब्बे की
खिड़की के ;जहाँ मैं बैठा थाद्ध
ऐन सामने स्वच्द निरभ्र आकश मार्ग से
एकदम अपने साथ-साथ
चलते रुकते
पाया मैंने उसे
आमने-सामने थे हम दोनों
और हमारे बीच में
दौड़ते भागते
गुजरते चले जा रहे थे
हरे-भरे खेत
बाग-बगीचे और गाँव
तालाब और टीले
पशुओं और पक्षियों के झुण्ड
बिजली के खम्भे और शीशम के वृक्ष
यानी वो सारी चीजें
जिन्हें हम रोज देखते और जानते हैं।
परन्तु उनके
हरे, भूरे, नीले, उजले रंगों पर
हल्की-सी एक/स्वर्णिम आभा
डाल दी थी सूर्य के प्रकाश ने

हो उठा था
सारा पार्थिव अपार्थिव
साधारण असाधारण
परिचित
अनजाना और रहस्यमय
अनूठा और अलौकिक
पता ही नहीं चला
कब और कैसे / सूरज ने ले लिया था
मेरे हित में / यह सुखद निर्णय

बड़े शौक से
खोली कविता की किताब
अब भी पड़ी थी हाथों में
अनपढ़ी

सूरज के रचे पल-पल परिवर्तित होते
जादू भरे उन दृश्यों को
मैं देखता रहा/निर्निमेष।
संध्या तक।
उस दिन / न मैंने कुछ पढ़ा
न सोचा।
पर वह एक अच्छा दिन था जो मैंने जीया
एक अच्छी यात्रा थी
जो मैंने कविता में की