मंजिलों से मुक्ति / उपेन्द्र कुमार
गंतव्य को
रास्ते नहीं मानते
समाप्ति
ऐसा कोई समझौता
नहीं है उपलब्ध
न प्रमाण कि
हर रास्ता
पहुँचेगा
गंतव्य तक
और हर मंजिल
सदा रहेगी स्थिर
कितने अपरिचित हैं वो
रास्तों और गंतव्यों के इस खेल से
सोचते हैं
उन्हें ही प्राप्त हैं
राहें
और पड़ाव
कितनी-कितनी बार
देखा है
चलते-चलते
मार्ग आगे निकल आते हैं
गंतव्यों से भी
मंजिलें
फिर रास्तों में बदल जाती हैं
हर अन्तिम छोर
फिर से शुरू होता है
जीवन की तरह
अनन्त
कौन चुनता है
मार्ग?
कभी-कभी आदमी के आगे
वे स्वयं आ जाते हैं
और हम उन्हें ही
गंतव्यों के
सारथी समझ
गले लगा लेते हैं
रास्ते, गंतव्य, भटकन
हैं एक-दूसरे के लिए
क्योंकि भटकते हुए
वर्तुलाकार में
हम वहीं पहुँचते हैं
जहाँ से
शुरू हुए थे
और विफलता में अपनी
लज्जा
छुपाते और अधिक
अनावृत हो जाता है
सत्य
जो घटनाओं में
रूपाकार
किसी दूसरे अवसर की
कल्पना है
रचना में तो
अक्सर जाना पड़ता है
पीछे या आगे
समय के सतत सूत्रों में
कोई भी
ठिठकन नहीं है
मार्ग में
चल रहे हैं शब्द
अर्थ
और भीतर से
उमड़ती है कविता
जो कहानी या उपन्यास से भी परे
केवल सृजन है
शब्द भी सृजन हैं
और अर्थ
उससे भी अधिक
आविष्कार
पर उससे भी
महत्वपूर्ण है
निरन्तरता
चाहे धीमी या तेज
वह तेज ही होगी
हर भावी तेवर की तरह
वैसे गति, निरन्तरता
भटकन
गंतव्य
रास्ते
और यात्रा
हैं तो ये सब
मात्र शब्द
और शब्द
केवल चीख भर हो सकते हैं
तपश्चर्या से बाहर
भीतर का रास्ता
अनाम हो जाता है
हर अनाम
अन्त का संकेत है
ठीक सृजन और
संरचना की तरह
संप्रेषित
होने की प्रक्रिया में जिसे
बनना था एक विराट सत्य
बीच रूप में ही
छिन्न होता है
अविछिन्न होने के लिए
अब शब्दों का दोहन कर
फिर से अर्थ
अर्थों के भी अर्थ
निरर्थ हैं
ठीक इसी तरह
गंतव्य
जहाँ पहुँचकर
फिर लगता है
कुछ शेष है