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शून्य का निर्माण / उपेन्द्र कुमार
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हवा और आग को
साथ ले
मिट्टी गूँथ
करता है निर्माण जब
महाशून्य
होता है अद्भुत वह क्षण
जन्म का
सपनों के पंख सजा
उड़ता समय
लगा डालता है,
कितने ही चक्कर
धरती और आकाश के बीच
घाटियों में
डोलते आकार
पहुँचते हैं
शिखरों तक
अदृश्य होने से पूर्व
यांत्रिकता की
बेजोड़ कसावट के बीच
पाते ही थोड़ी उर्वर भूमि
उग आती है कविता
भयभीत करती अभेद्य कवचों को
सुलझाती गुत्थियाँ
भीतरी रहस्यों की
शब्दातीत अनुभवों के
सहारे
अपने नन्हें हाथ हिला
विदा दे रही होती है
जब दूब वसंत को
कविता पहुँचती है वहाँ
तिरोहित होने से पूर्व
लौटा देती है
सब कुछ वापस महाशून्य को
पुनः निर्माण का
चमत्कार भरा सुख
देती है भोगने