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अबूझ भुलावे / उपेन्द्र कुमार

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मेरे
कहीं होने
और दीखने में
होती है
एक असहज असमानता
जो करती है निर्भर
मन की चंचलता
या चित् की स्थिरता पर

हवा ही तरह
बहा हूँ मैं
जब भी कभी
बन्द खिड़कियों, दरवाजों की
फाँकों से
जाने कितने ही
मूल्यावान
धराऊ और जड़ाऊ शब्दों के
चोरी हो जाने की
शिकायतें
करवाई गई हैं दर्ज

कचहरी में खड़ी
भीड़ की ओर
उछाले गए
मेरे प्रश्न
कर दिए गए हैं जमा-रजिस्टरों में
शिकायतों की पुष्टि के प्रमाण स्वरूप
जीवन को
किरणों की तीखी धार से
काटते-छीलते
मैंने जब भी चमकाए
खोज-खोज
घूरे पर फेंके
या कीचड़ में फँसे शब्द
तो हड़प लिए गए वे
बीच रास्ते में-
कविता और मैं
इस सारी प्रक्रिया में
भकुआए से खड़े हैं
देते हुए परस्पर सांत्वना
अबूझ समीकरणों के
हल हो जाने की
प्रतीक्षा में.....