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वसीयत / उपेन्द्र कुमार

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नई चीजों की तरह
नव वर्ष पर
जमा हो जाती हैं
सुन्दर जिल्दवाली
नई चमचमाती डायरियाँ भी

दे जाते हैं,
मित्र, शुभचिंतक।
मैं भी उसी क्रम में
आगे सरका देता हूँ
ठीक उसी भाव से
शायद कोई काम सध सके।

फिर हो लेता हूँ व्यस्त
वर्षों पुरानी अपनी
उस प्रिय डायरी के संग
जो थी कभी/नई नकोर
जैसे वसंत की भोर
डगमगाते पैरों से चलती
चाँद-सूरज लेने को मचलती
अबोध मुस्कानों से सजी
परियों, तितलियों, फूलों के चित्रों से भरी
अब तो
धीरे-धीरे / हो चली है वो मैली
कहीं-कहीं से तो / लगी है फटने
फिर भी
पहाड़ी झरने-सी है निरंतरता
नियमितता सूरज सी
हर सुबह
सामने मेरे
स्वचालित ढंग से
कर देती है प्रस्तुत एक नया पन्ना

हर रंग हर भाव के चित्र
इन पन्नों पर / मैंने हैं उकेरे
कहीं छूट गए हैं पृष्ठ कोरे
उन पर दर्ज हैं
घटनाएँ जिन्हें सिर्फ मैं देख सकता हूँ
तरतीब से।

कहीं पन्नों पर
हल्के से रंग हैं/कहीं तेज
कहीं आदमी/कहीं जानवर
कहीं फटा आसमान
और ऐसे ही / मैं पढ़ लेता हूँ
उनके पीले पड़ते वर्ण में
अपना अतीत

कभी किसी रेगिस्तान, जंगल
या अंधेरी, सुरंग से गुजरते
अगर तुम भी इन्हें देख सको
तो पढ़ लोगे
जिन्हें मैं पढ़ता हूँ
बिना शब्दों
आकृतियों के।