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चुप नहीं है समय / उपेन्द्र कुमार

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स्वयं ही तो तुम
उलझे थे
संख्याओं के इस खेल में
अपने ही हाथों तो
फेंके थे पासे तुमने युधिष्ठिर
अब संख्याओं को
सिळान्तों के चीर-हरण हेतु
उद्यत देख
क्यों हो रहे हो अधीर

क्या नहीं था ज्ञात तुम्हें
कि ऐसे खेलों में
हों कोई भी नियम
कुछ भी हों शर्तें

दाँव पर लगा हो कुछ भी
हारेगा वही
होगा जो सही

राम-पुरुष होकर
फिर क्यों स्वीकारी
वह गलती
करता आया है जो
हर युग में
आम आदमी

अनेक काल खंडों के
अनेकानेक प्रसंगों में
संख्याओं ने
उठाए हैं
प्रश्नों के ध्वज

अनगिनत
मनोरंजक शतरंजी प्रश्न
जो सिद्धांतों को घेर
करते हैं विजयोत्सव का
झूमर नृत्य
गाते हुए
तरह-तरह के गीत

प्रश्न जो पूछते हैं
संख्या बड़ी है
पाँच की अथवा सौ की
कितना सरल है चुनना
अकेले कृष्ण की तुलना में
चौदह अक्षौहिणी सेना को

अथवा
कितने सहस्त्र हाथी, घोड़े और सैनिक
महारथी, रथी और अर्ळरथी
होते हैं काफी
जीतने को एक महाभारत

अनवरत
चलता जाता है यह नृत्य
अविराम
गूँजते रहते हैं ये गीत
जब तक सिळान्त
अपनी भुजाएँ उठा
मुठ्ठियाँ खोल
करते नहीं है मुक्त
कुछ प्रयंलकर झंझावात, उठाते नहीं सुदर्शन
छोड़ते नहीं वे अग्नि-बाण
जो ले जाते हैं उड़ा
तिमिर भेद
संख्याओं का काला जादू
या फिर
देख नहीं लेता विभीषण
‘रावुन रथी’ के सम्मुख डटे
‘विरथ रघुवीरा’ के
‘जेहि जय होई सो स्यंदन’
का आना
डूब जाता है
जिसके पहियों की घरघर ध्वनि में
असंख्य संख्याओं का
डरावना कोलाहल

हर बार की तरह
फिर एक बार
उतर आए हैं हम
संख्याओं के खेल पर
उठाए जाने लगे हैं
सारे प्रश्न
दिए जाने लगे हैं
सारे समाधान
संख्याओं के संदर्भ में
किस सम्प्रदाय की संख्या में
कौन सी बिरादरी की संख्या
जोड़ने पर बनेगा बहुमत
कौन सी दी जाएं घटा
तो हो जायेगा अल्पमत
किस दहाई की होगी कौन सी तिहाई
संसद में
रस्सा तुड़ा
बगटुट भाग जाने के लिए
पड़ेगी कितनी लोठियों की जरूरत
लोगों की पेटियों से खदेड़
घरों में घुसेड़ देने के लिए
चाहिए होंगी कितनी बन्दूकें
किसी लोकतंत्र को
भ्रष्टाचार के गर्त में डुबोने के लिए
काफी होंगे कितने बम

होते हैं उपस्थित
चार्वाक के वंशज
आएँ
सम्मिलित हों
लालसा-लोलुप नृत्य में

मूल्यों के ये व्यापारी
करते हैं घोषित
गलत था सारा अतीत
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
महज एक धोखा है
और सारे पंडित महात्मा
मात्र अव्यावहारिक स्वप्नदर्शी
मुँह फाड़े भौचक
पाते हैं सब
कि अब यहाँ
नहीं है कोई राष्ट्र
नहीं है कोई देश
है तो है
केवल एक बाजार
सौदागरों के स्वागत में
हिमालय से कन्याकुमारी तक फैला हुआ
जिसमें लोग नहीं रहते
रहती हैं संख्याएँ
इकाइयाँ और उनकी विभिन्न दहाइयाँ
रहते हैं विभिन्न उपभोक्ता समूह
अलगाए गए एक दूसरे से
अनैतिक, आर्थिक, मानदंडों पर
निहित, व्यापारिक, स्वार्थों द्वारा

आकर्षक विज्ञापनों की
रंगीन झंडियाँ लगाए
गुज़रते हैं जुलूस
आयातित प्रशंसा के प्रमाणपत्र ढोते
तटस्थ आँखों से
देखते हैं उदासीन लोग
जिन्हें महाकाय कम्प्यूटर
निगल जाते हैं
विवरण और संख्याओं के रूप में

कविता
दौड़ती है
हाथ हिलाते
पर गुज़रता जाता है जुलूस
उसकी समस्त अकुलाहट के बीच से

चतुर ऐय्यारों के बनाए
रंगीन तिलिस्मों के बीच
व्याकुल हो घूमती है
पर आवाज़ कविता की
पहुँच नहीं पाती
जंगल के हाशिए पर खडे़
सिद्धांतों तक
खो जाते हैं उसके शब्द
भूख और भीख के बीच की खाई में
जहाँ भाषा व्यस्त है
चाटुकारिता के
नए व्याकरण-निर्माण में
और हो नहीं पा रहा है निर्णय
कि चाँद, सूरज और हवा का
समान रूप से उपलब्ध होना
सबके लिए
उनकी मजबूरी है
या महानता

निर्णायक
कर गए हैं प्रस्थान
बगलों में दबाए वे किताबें
जिनके पृ ष्ठों में
तितलियाँ नहीं
दबी हैं केवल मक्खियाँ
प्रमाण स्वरूप
मौसमों की बर्बरता के

नचिकेता
खड़ा यम-द्वार पर
है विचारमग्न
सत्य को भी सिद्ध करने हेतु
जहाँ आवश्यक है प्रमाण
वहाँ ले कौन से समाधान
लौटेगा वह वापस
कुछ सार्थकता भी होगी क्या
मृत्यु के रहस्यों के अनावरण की
जीवन ही जहाँ
नित्य नए ढंग से
हो रहा है तिरस्कृत

बुरी तरह पस्त हो
तटस्थ बनती जा रही
कौम की मानसिकता
अपने यथार्थ
और व्यावहारिक नैतिकता के मानदण्डों पर
गढ़ रही है नए मूल्य
या मूल्यों के अवमूल्यन के
नए समीकरण

विश्व-व्यापकता
होती नहीं है प्रमाण
औचित्य का
परन्तु भ्रष्टाचार की सफलता से
ललचाए सभासद
इसी व्यापकता का तर्क
चाहते हैं तान देना
ढाल की तरह
अंतरात्मा की धिक्कारों के समक्ष
अंधेरी सुरंग में उतरने से पहले

गेंद की तरह
ज़िम्मेदारियों को
एक दूसरे की तरफ उछालते हुए
पारदर्शी निर्लज्जता से भरी
बयानबाजी
होती है जन-प्रतिनिधियों की सभा में
और लोगों के मुँह में पड़ते ही
चीनी का स्वाद
हो उठता है कसैला

गणित की कक्षा में
लगाया जाने लगता है
हिसाब
देश की सोच पर चढ़ी
बकाया ऋण की राशि का
विश्व बैंक की ब्याज की दर्रों
के आधार पर

छिनाल राजनीति के साथ
लम्बे सहवास से
हो गए हैं
एड्स ग्रसित बुळिजीवी
जो फड़फड़ाते अखबार
और लड़खड़ाते पेट के बीच
तनी रस्सी पर
नटों की दक्षता के साथ
हैं प्रदर्शनरत
अर्थव्यवस्था के विश्वीकरण
और मलाई के निजीकरण
के समर्थन में
उनकी माँग है
कि गर्भाशयों
और गुदाज़ जाँघों पर
नहीं लगाना चाहिए
कोई भी सम्पत्ति कर

चुनाव आयोग के सर्कस का
पालतू शेर
पा खुला पिंजरा
अपनी पहचान खोजने
निकल भागा है
पूँछ फटकारता, दहाड़ता
राजधानी के जंगल का राजा बनने।
राज्याभिषेक के समारोह का
बनने
चश्मदीद गवाह
तालियाँ बजाते
इकट्ठे हो गए हैं हिजड़े
जो समर्थ सभासदों की तलाश में
एकत्र समुदाय में हर एक की
पूँछ उठा देखते हैं
और निराशा से हिला देते हैं सिर

घोड़ा क्यों अड़ा
पान क्यों सड़ा
फेरा नहीं गया था की तर्ज पर
सारी समस्याओं
उलझनों, विफलताओं का
ले सरल समाधान
बहुरूपिए खड़े हैं
बताते हुए
मूल कारण है विस्फोट जनसंख्या का
उनकी महत्वाकांक्षाओं का
उपभोक्ताओं का
उनकी इच्छाओं का
और इस तरह
एक बार फिर
कर दी गई है खड़ीं
सबके सामने संख्याएँ
लो अब निबटो इनसे
इन उछलती-कूदती
नाचती-गाती
करोड़ों करोड़ संख्याओं से

कविता
अपसंस्कृति के दौर में
धैर्य के साथ
प्रेरित करने को है प्रयत्नशील
कि आदमी करे प्रज्ज्वलित
वैश्वानर अपने क्रोध का
बनाए पर्वताकार
अपनी ऊब को
चिढ़ और असंगता से
बाहर निकल
करे मुक्त कुछ प्रलयंकर झंझावात
जो ले जाएँ उड़ा
कर दें नष्ट
संख्याओं का काला जादू
ताकि
भेज सके वह
जय-घोष का निमंत्रण-पत्र
अलाव के गिर्द बैठे
बूढ़े इतिहास से बोध कथाएँ सुनते
सिद्धांतों को