ख़ून फिर ख़ून है / साहिर लुधियानवी
जुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते सॉंस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती ख़ून अपना हो या पराया हो नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर बम घरों पर गिरें कि सरहद पर रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है टैंक आगे बढें कि पीछे हटें कोख धरती की बाँझ होती है फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग जिंदगी मय्यतों पे रोती है
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों जंग टलती रहे तो बेहतर है आप और हम सभी के आँगन में शमा जलती रहे तो बेहतर है।