भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई फूल धूप की पत्तियों में / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:03, 16 फ़रवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई फूल धूप की पत्तियों में, हरे रिबन से बंधा हुआ ।
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया, न कहा हुआ न सुना हुआ ।

जिसे ले गई अभी हवा, वे वरक़ था दिल की किताब का,
कही आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं, आँसुओं से लिखा हुआ ।

कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई,
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है, नदी के पास खड़ा हुआ ।

मुझे हादिसों ने सजा-सजा के, बहुत हसीन बना दिया,
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो, मेहन्दियों से रचा हुआ ।

वही शहर है वही रास्ते, वही घर है और वही लान भी,
मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख़्त अनार का क्या हुआ ।

वही ख़त के जिसपे जगह-जगह, दो महकते होंठों के चाँद थे,
किसी भूले बिसरे से ताक़ पर, तहे-गर्द होगा दबा हुआ ।