Last modified on 18 फ़रवरी 2011, at 04:55

घर छोड़ते समय / कुंदन माली

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:55, 18 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुंदन माली }} Category:मूल राजस्थानी भाषा {{KKCatKavita‎}}<poem>ज…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब-जब
निकलता है वह
संभालने अपनी
नौकरी और कामकाज को

घर के सदस्य
देने लगते हैं सीख
और माँ आशीष-
“पहुंचते ही वहां
लिखना कागद
राजी-खुसी का समाचार देना

सुना है
बहुत ज्यादा होती है
वहां सर्दी और गर्मी

ध्यान रखना
तबीयत का
ढंग की खाना खुराक
सहन कर लेना
यदि कोई निकाल भी दे
एक-आध गाली
रखना याद परदेश में
जा रहा है कमाने-खाने
युद्ध के लिए नहीं

ऊंचे सुर में
कभी मत बोलना
बड़े आदमियों से

प्यार-मोहब्बत रखना
पड़ौसियों से
कभी बिगाड़ना नहीं

सहना पड़े चाहे
चार पैसे का
नुकसान

कुल-कुटंब पर
नहीं करे कोई
थूं-थूं ।”

स्वभाववश
कहती है
बड़ी बहन-
“मत सहना
परदेश में दुख
जरूरत हो तो
मंगा लेना रुपए-पैसे

चलती है जैसे चल जाएगी
यहां तो अपनी गाड़ी
घर ही तो हैं
परदेश में थोड़े ही हैं

आते रहना
वार-त्यौहार
एकेला नहीं है तू
हम भी हैं
तेरे साथ जुड़े तेरे पीछे ।”

बस तक छोड़ने
चले आते है साथ
भाई और यार-दोस्त
होती रहती हैं
बातें और बातें

हम पहुंच जाते हैं
दुनिया-जहान के समाचारों में
उतरते जाते हैं-
स्मृति की गहरी घाटियों में

बातों ही बातों में
आ जाती है बस
अर बस में
पहुंच जाता है सामान

और वह
हो जाता है जल्दी से
बस में सवार

पलक झपकते ही
अपना स्थान
छोड़ देती है बस
खड़े रह जाते हैं
यार-दोस्त-भाई

खड़ा हो जैसे
कोई वट-वृक्ष
और उड़ गया हो
उस पर बैठा कोई
एक पक्षी !

अनुवाद : नीरज दइया