भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर छोड़ने के बाद / कुंदन माली

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:56, 18 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुंदन माली }} Category:मूल राजस्थानी भाषा {{KKCatKavita‎}}<poem>घ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घर छोड़ने के बाद
कपड़वंज आने के बाद
अधिक नहीं तो
दो सौ पचीस किलोमीटर
पीछे छूट जाता है उदयपुर

छूट जाते हैं
बंधु-बांधव
घर और गांव
अपने खेत और खलिहान
कच्चे-पक्के घर
टूटी हुई दुकान

छूट जाते हैं
बाग-बगीचे
चिड़ा-चिड़ी
घर के गमले
टेबल पर रखे फूलदान

छूट जाती हैं-
मिट्टी की मुस्कान
मांडे के गीत
होठों की हंसी
तीज और त्यौहार
एक का बिणज
दूजे का व्यापार

फिर-फिर लौटता
आता है याद
बचपन में जो सुना
माँ ने जो गाया गीत
गीत के बोल-
“बन्ना ओ…
दीपावली के दीप जले
और रेल गई गुजरात ।”

कौन जानता था
अपने ही गाँव
घर और देश में
आएगी वह रेल
रेल में बैठ कर
पड़ेगा जाना
माँ के बेटे को गुजरात

सच हो जाएंगे
माँ के गाए गीत के शब्द
इतने वर्षों बाद
और इस तरह !

सच हो गया
माँ का गाया गीत
नहीं हुई सच
दादी माँ की बात
जो कहा करती थीं-
“कम खाना गम खाना
घर छोड़ कर कहीं मत जाना !”

अनुवाद : नीरज दइया