भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

और अब यह ख़ुशी / ब्रज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:20, 21 फ़रवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक ख़ुशी करवट बदल रही है
उस तरफ़ वह उतनी चमकीली कहाँ

खेत में अंकुरित हुई फ़सल की तरह
शिशु की पहली किल्लोल और
साल की पहली तारीख़ की जैसी
लेकर आई थी यह कई उम्मीदें

यह मेरे भीतर रही ख़ूब
हर पल में डाले रंग
पल के हर हिस्से को महकाया इसने
इस हद तक रही यह प्रिय
कि इसके जाने की आशंका ही
डुबो देती एक अंधेरे शून्य में

इस इत्तफ़ाक को संजोए रखने के बदले में
कुछ भी करने के लिए रहे तत्पर

और अब यह ख़ुशी
शायद ख़ुद भी उतनी ख़ुश नहीं
समेट रही है अपना सामान
थोड़ा पहले से करा रही है अभ्यास
उसके बग़ैर रहने का