भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुनाव / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:18, 23 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = नीलोत्पल }} {{KKCatKavita‎}} <poem> बहुत सारे सच और बहुत सारे …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत सारे सच
और बहुत सारे झूठ सुनने के बाद
इतना तय हुआ
दुनिया दोनों के साथ चलेगी
जिसे आपत्ति है
वह दर्ज़ करवाए
मेरा अपना कुछ नहीं था
मुझे तो बस चुनना था
मैं क्या चुना सकता था?
मैं किसलिए चुनता?
लोगों के मन अपराध बोध से भरे थे
वे डरे सहमे थे
वे अपने ही खिलाफ थे
जब उनके निकट गया और जाना
वे सच के लिए झूठ बोल रहे थे
झूठ के लिए सच
वे चीज़ों को बचा रहे थे
वे अंतहीन बहस में थे
मुझे सच चुनना था
लेकिन झूठ की अनिवार्यता के साथ