भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़बरें / मनमोहन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:37, 23 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनमोहन |संग्रह= }} <poem> अपनी गाँठें और जड़ें छोड़कर …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी गाँठें और
जड़ें छोड़कर
वे आती हैं
 
चौड़ी मेज़ों पर फैली हैं
चुनी और साफ़ की जा रही हैं
 
हड्डियाँ अलग की जा चुकी हैं
उनका ख़ून धोया जा रहा है
 
अपना रंग छोड़ चुकी हैं
गंध बदल चुकी है
वे स्वाद जगा रही हैं
 
वे अपना कोई पता नहीं बतातीं
सर नहीं दुखातीं
साँस नहीं रोकतीं
उतना खेल दिखाती हैं
जितने की ज़रूरत है
 
उन्हें कुछ नहीं कहना
वे एक कोने में रह लेंगी
घुलमिल जाएँगी
आपस में कट मरेंगी
 
बस थोड़ा खेल दिखाएँगी
और ख़ामोश हो जाएँगी।