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ख़बरें / मनमोहन
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अपनी गाँठें और
जड़ें छोड़कर
वे आती हैं
चौड़ी मेज़ों पर फैली हैं
चुनी और साफ़ की जा रही हैं
हड्डियाँ अलग की जा चुकी हैं
उनका ख़ून धोया जा रहा है
अपना रंग छोड़ चुकी हैं
गंध बदल चुकी है
वे स्वाद जगा रही हैं
वे अपना कोई पता नहीं बतातीं
सर नहीं दुखातीं
साँस नहीं रोकतीं
उतना खेल दिखाती हैं
जितने की ज़रूरत है
उन्हें कुछ नहीं कहना
वे एक कोने में रह लेंगी
घुलमिल जाएँगी
आपस में कट मरेंगी
बस थोड़ा खेल दिखाएँगी
और ख़ामोश हो जाएँगी।