भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो सुकूँ है जबसे निकला हूँ उमस भरे मकाँ से / मयंक अवस्थी

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:10, 24 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मयंक अवस्थी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> वो सुकूँ है जब…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो सुकूँ है जबसे निकला हूँ उमस भरे मकाँ से
मुझे गर्म लू के झोंके भी लगे हैं सायबाँ से

ये तमाम उम्र गुज़री बड़े सख्त इम्तिहाँ से
न थी खुदकुशी की ताक़त न ही लड़ सके जहाँ से

शबे-ग़म की ज़ुल्मतों में ये ज़मीन मुतमईन थी
कभी आयेगा उतरकर कोई नूर कहकशाँ से

मैं शिकस्त दे चुका था कभी बहरे- बेकराँ को
मैं शिकस्त खा गया हूं किसी अश्के- बेज़ुबाँ से

मेरी शाइरी से हँसकर कहा दर्द ने चमक कर
कोई धूप भी तो निकली तेरे ग़म के आसमां से

 ओ चमन की ख़ाक पाँओं में भी बिछ के मिल सका क्या
 कोई प्यार इन गुलों से कोई रब्त बागबाँ से