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सरे आम नीलाम जिंन्दगी/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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सरे आम नीलाम जिंन्दगी
गली गली में टंगे हुये हैं
दहशत के पैगाम
ढूंढ रहे आकुल सन्नाटे
लहरों में विश्राम।
उगे हुये हैं राजपथों पर
झरवेरी कांटे,
मीठे मीठे दर्द हवा में
मौसम ने बांटे,
सरे आम नीलाम जिन्दगी
सुख सुविधा के नाम।
वृद्ध सदी बीमार डगर है
पांव पडे छाले
त्रस्त कुटी ने अपने मुंह पर
डाल लिये ताले
गुनहगार माथे पर दिखता
लिखा राम का नाम
सीढी सीढी धूप सुनहली
आंगन में उतरे
कमरों कमरों में अंधियारे
फिर भी हैं पसरे
लोग लगाये बैठे अपने
हाथों अपने दाम
ढूंढ रहे आकुल सन्नाटे
लहरों में विश्राम