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जिंदगी भर सत्य की / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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जिंदगी भर सत्य की
जिंदगी भर सत्य की शाश्वत कथा पढते रहे
एक अक्षर किन्तु फिर भी हम समझ पाये नहीं
लेखनी से भावनाऐं
गीत बन ढलती रहीं
हृदय की संवेदनायें
शब्द बन बहतीं रहीं
अनकहे अहसास के अब तक लिखे हैं पृष्ठ ढेरों
पर तरन्नुम में उन्हें हमने कभी गाये नहीं
सांन्त्वनायें कागजी हर
मोड़ पर बंटती रहीं
वन्चनायें बन सुनहरे
पल सदा छलती रहीं
बादली सम्भावना की हम गरज करत रहे
किन्तु फिर भी मेघ बनकर तभ कभी छाये नहीं