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रौशनी जैसे अंधेरा बो गई / विनय मिश्र

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रौशनी जैसे अँधेरा बो गई
ज़िंदगी वीरानियों में खो गई

मैं मुसलसल गिन रहा हूँ रात-दिन
मेरी सदियों से लड़ाई हो गई

कश्तियाँ आँखों में उतराई मगर
एक भी लौटी नहीं है जो गई॔

अपनी ही लाचारियों से चुप रहा
वर्ना क्या-क्या बोलती-सी वो गई

मुस्कराई ओंस की बूँदें सुबह
रात धीरे से उदासी रो गई

चीख़ होकर जागने वाली हँसी
खँडहरों में आ, ख़ुशी से सो गई

हर कहीं उसकी महक मौज़ूद है
लाख तू कहता रहे कि वो गई