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फिर कविता की बातें होंगी / विनय मिश्र
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फिर कविता की बातें होंगी फिर गायेंगे लोग ग़ज़ल ।
हमने जो आँसू बोए हैं ये देंगे भरपूर फ़सल ।
आप अपाहिज हैं भीतर से बाहर से बैसाखी पर,
आसमान पर पाँव धरेंगे फिर कैसे घुटनों के बल ।
जीने के भी बने बनाए फ़्रेम मिले बाज़ारों में,
मुँह-मागी क़ीमत जमीर की देकर इन साँचों में ढल ।
मैं टटोलता हुआ किरन को जिस मुक़ाम पर पहुँचा हूँ,
उसके चारों तरफ़ मिला है यारो, भीषण दावानल ।
दिन की बाज़ी हार गए हम यही तल्ख़ सच्चाई है,
वरना कैसे हुए उजालों पर हावी रातों के छल ।
कहाँ पहाडों पर ठहरा है कभी पहाडों का पानी,
दरक रहीं हैं वहाँ ज़मीनें आँखों में है गंगाजल ।
मुँह में फँसी ज़ुबान काटकर शहद छीन लो बोली का,
फिर भी मौसम की आहट पर शोर मचाएगी कोयल ।