भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुविधा की बीन / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:35, 27 फ़रवरी 2011 का अवतरण
तन शहरी
मन हुये जंगली
आंखों पर चश्में रंगीन
हवन जिन्हें करना था वो भी
बजा हें सुविधा की बीन
दोष नहीं था आंखों का पर
पतझड़ हुये बसंती सपने,
वे बो गये राह में कांटे
समझा किया जिन्हें हम अपने
मुंह से शिव शिव बोल रहे पर
हाथों में पकडे़ संगीन
परखा जिन्हें मिले वो खोटे
चमकदार कहने भर को थे,
देख न पाये शकल स्वयं की
हाथ थमे दर्पण यू ंतो थे,
आग लगा बैठे घर अपने
मति ले गया विधाता छीन
थे वेा नियति के खेाटे
पर था राजयोग हाथों में,
कहने भर को थे दधीचि पर
स्वार्थ भरा था जजबातों में,
ऊंची ड्योढ़ी, घर कुबेर का
अनगिन द्वार खडे थे दीन