भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अन्दर भरे हलाहल/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्दर भरे हलाहल, बाहर
रूप सलोने हैं,
धूपदान सुलगाने वाले
हाथ घिनौने हैं ।

एक आँख में बाल सुअर का,
एक आँख चर्बी,
मन्द मन्द मुसकानें दिखतीं
होठों पर फिर भी,

खून लगा दाँतों , मखमल के
बिछे बिछौने हैं ।

हाथों में बन्दूक थमी है
आँखों में लाली,
लगता है भयमुक्त बनाने
का दावा जाली,

भूल चुके लोरी का सुनना
घर के छौनें हैं ।

राम-नाम का जाप, गले में
तुलसी के माले,
दीवालों पर टंगी हुई हैं
हिरनों की खालें,

जिनके जितने लम्बे कद वो
उतने बौने हैं ।

धूपदान सुलगाने वाले
हांथ घिनौने हैं ।