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मास्टर की छोरी / प्रतिभा सक्सेना

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विद्या का दान चले ,
जहाँ खुले हाथ ,
कन्या तो और भी
सरस्वती की जात !
और सिर पर पिता मास्टर का हाथ !

कंठ में वाणी भर ,
पहचान लिये अक्षर !
 शब्दों की रचना
 अर्थ जानने का क्रम !
समझ गई शब्दों के रूप और भाव
और फिर शब्दों से पार पढ़े मन !
जाने कहाँ कहाँ के छोर ,
गहरी गहरी डूब तक !
बन गया व्यसन !
 मास्टर की छोरी !

पराये लगे न कभी ,
लड़के ,हर बार नये ,
घर में आ रहते रहे !
माता का मन उदार ,
भूख-प्यास जान रही ,
अक्सर ही स्वेटर भी !
पढ़-लिख, तैयार चरण छूते,
 बिदा होते !
 किसी को भी नहीं खला ,
कभी कमी नहीं पड़ी !
यों ही बड़ी होती रही
मास्टर की छोरी !


एक दिन किसी ने कहा -
 उनके पास है क्या सिवा
फ़ालतू की बातों के
और इन किताबों के  ?
क्या अचार डालेगी ,
रीत-भाँत- दुनिया से कोरी ,-!
 मास्टर की छोरी !


बुरा लगा , हुई दुखन!
जान गई अपना सच ,
साध लिया बिछला मन !
दुनिया को समझ रही
अपने से परख रही
मास्टर की छोरी !


ब्याह गई !
नये लोग नये ढंग !
कमरोंवाला मकान,
लोक- व्यवहार ,
सभी साज और सँवार !
 लेकिन किताबों बिन ,
सूनी सी लगतीं रही
 भरी अल्मारियाँ  !


चाह उठे बार-बार ,
कभी एकान्त खोज,
मन चाही किताब खोल
 पास धर लाई-चना
देर तक पढ़ती रहे शान्त - चुपचाप !
कहीं रुके अनायास ,
कुछ सोचती या गुनती रहे !
मास्टर की छोरी !
 *
पढ़ती सभी के मन ,
करने लगी जतन !
ले अकेलापन
कौन जाने वह चुभन !
पाट नहीं पा रही .
भीतर और बाहर के बीच बसी दूरी !
मास्टर की छोरी !