भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोयल (कविता) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:37, 2 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= चन्द्रकुंवर बर्त्वाल }} {{KKCatKavita}} <poem> ''' कोयल (कविता)''…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोयल (कविता)
हे प्रेयसी,
इस मधुवन में भी हो
फूलों का प्रीत प्रकाश
हो अनन्त में
ताराओं का विखरा
सुमधुर -उज्जवल हाश
विचित्र बादल सा हिलता हो,
किरण-करों से शरदाकाश
लौट रही हो पागल सी बन,
जब मेरे लधु उर की श्वास
सेाते हों मेरे नयन श्रान्त,
आवें यदि मेरे कृष्ण कान्त
गाना स्वागत के अमर गान,
कोकिल चिर जागृति देखि प्राण
वह अमर बेलि से सरस गान,
वह सरस गान छतनार गान
कोकिल प्राणों की देवि प्राण,
गाना स्वागत के अमर गान
इस प्रकार
अनजान आज बन
मान करो मन नादान
रूठो मत
रूपसि उससे ही,
जो यौवन का जीवन प्राण
जिसके मदिर रूप के तुमने
गाए हैं वन-वन में गान
वही वन वधू
द्वार तुम्हारे आई
उसकेा दो सम्मान
(कोयल कविता से )