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अगुरु-धूम / रामधारी सिंह "दिनकर"

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अगुरु-धूम

कल मुझे पूज कर चढ़ा गया
अलि कौन अपरिचित हृदय-हार?
मैं समझ न पाई गृढ़ भेद,
भर गया अगुर का अन्धकार।

[१]
श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु
गुनगुना रहा था मर्म-गान,
"आ रहा दूर से मैं निराश,
तुम दे पाओगी तृप्ति-दान?
यह प्रेम-बुद्ध के लिए भीख,
चाहिए नहीं धन, रूप, देह,
मैं याच रहा बलिदान पूर्ण,
है यहाँ किसी में सत्य स्नेह?

पुरनारि! तुम्हारे ग्राम बीच
भगवान पडे हैं निराहार।"
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।

[२]
सिहरा जानें क्यों मुझे देख,
बोला, "पूजेगी आज आस;
पहचान गया मैं सिद्धि देवि!
हो तुम्हीं यज्ञ का शुचि हुताश।
मैं अमित युगों से हेर रहा,
देखी न कभी यह विमल कान्ति,
ऐसी स्व-पूर्ण भ्रू-बँधी तरी,
ऐसी अमेय, निर्मोघ शान्ति।

नभ-सदृश चतुर्दिक तुम्हें घेर
छा रहे प्रेम-प्रभु निराकार।"
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।::

[३]
अपनी छवि में मैं आप लीन
रह गई विमुख करते विचार,
‘वाणी प्रशस्ति की नई सीख
आया फिर कोई चाटुकार।’
पर, वीतराग-निभ चला भिक्षु
रचकर मेरा अर्चन-विधान;
कह, "चढ़ा चुका मैं पुष्प, अधिक
अब और सिद्धि क्या मूल्यवान?

फिर कभी खोजने आऊँगा, पद
पर जो रख जा रहा प्यार।"
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।

[४]
"अब और सिद्धि क्या मूल्यवान?"
मैं चौंक उठी सहसा अधीर;
फट गया गहन मन का प्रमाद,
आ लगा वह्नि का प्रखर तीर।
उठ विकल धूम के बीच दौड़
बोलूँ जब तक, "ठहरो किशोर!"
तब तक स्व-सिद्धि को शिला जान
था चला गया साधक कठोर।

मैंने देखा वह धूम-जाल,
मैंने पाया वह सुमन-हार;
पर, देख न पाई उन्हें सजनि!
भर गया अगुरु का अन्धकार।

[५]
तुम तो पथ के चिर पथिक देव!
कब ले सकते किस घर विराम?
मैं ही न हाय, पहचान सकी
करगत जीवन का स्वर्ण-याम।
है तृषित कौन? है जलन कहाँ?
मेघों को इसका नहीं ध्यान;
यह तो मिट्टी का भाग्य, कभी
मिल जाता उसको अमृत-दान।

फिरना न कभी मधुमास वही
शत हृदय खिलाकर एक बार;
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।

[६]
चरणों पर कल जो चढ़ा गए
तुम देव! हृदय का मधुर प्यार,
मन में, पुतली में उसे सज़ा
मैं आज रही धो बार-बार;
जो तुम्हें एक दिन देख नहीं
पाई अपने भ्रम में विभोर,
आकर सुन लो टुक आज उसी
पाषाणी का क्रन्दन किशोर!

छिपकर तुम पूज गए उस दिन,
छिपकर उस दिन मैं गई हार;
पर छिपा सकेगा अश्रु-ज्योति
भर गया अगुरु का अन्धकार?

[७]
कल छोड़ गए जो दीप द्वार पर,
उर पर वह आसीन आज;
साधना-चरण की रेणु-हेतु
है विकल सिद्धि अति दीन आज;
मन की देवी को फूल चढ़ा,
चाहिए तुम्हें कुछ नहीं और;
पर, विजित सिद्धि के लिए कहाँ
साधक-चरणों के सिवा ठौर?

मैं भेद न सकती तिमिर-पुंज
तुम सुन सकते न करुण पुकार;
साधना-सिद्धि के बीच हाय,
छा रहा अगुरु का अन्धकार।

[८]
मैं रह न गई मानवी आज,
देवी कह तुमने की न भूल;
अन्तर का कञ्चन चमक उठ,
जल गई मैल, झर गई धूल;
नव दीप्ति लिए नारीत्व जगा
यह पहन तुम्हारी विजय-माल;
कुछ नई विभा ले फूल उठी
जीवन-विटपी की डाल-डाल।

देखे जग मुझमें आज स्त्रीत्व
का महामहिम पूर्णावतार;
मैं खड़ी, चतुर्दिक मुझे घेर
छा रहा अगुरु का अन्धकार।

[९]
कल सौंप गए जो मुझे प्रेम,
देखो उसका शृंगार आज;
मैं कनक-थाल भर खड़ी, बुद्ध-
हित ले जाओ उपहार आज;
सब भूल गई, कुछ याद नहीं
तरुणी के मद की बात आज;
आओ, पग छू हो जाऊँगी
रमणी मैं रातों-रात आज।

माँ की ममता, तरुणी का व्रत,
भगिनी का लेकर मधुर प्यार,
आरती त्रिवर्तिक सजा करूँगी
भिन्न अगुरु का अन्धकार।

बह रही हृदय-यमुना अधीर
भर, उमड़ लबालब कोर-कोर,
आओ, कर लो नौका-विहार,
लौटो भिक्षुक, लौटो किशोर!