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रो कवि, रो ! / मोहन आलोक

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रो भाई, रो
लगातार रो
जैसे कि हम रो रहे हैं-

रात को, दिन को
अंधेरे को, उजाले को
गर्मी को, पाले को
अमीय को, विष को
तृप्ति को, तृष्णा को
रो
कि रोना ही
अपनी नियति है

रो
कि इस रोने में ही
मनुष्यता की गति है
रो !
कवि रो !!
कि तुमहारे रोने में
और आम आदमी के रोने में
बहुत फर्क है

रो !
कवि रो !!
कि तुम्हारे रोने से ही
सुरक्षित है
आने वाली पीढ़ियों का हर्ष ।


अनुवाद : नीरज दइया