पुरुष-प्रिया / रामधारी सिंह "दिनकर"
पुरुष प्रिया
मैं वरुण भानु-सा अरुण भूमि पर
उतरा रुद्र-विषाण लिए,
सिर पर ले वह्नि-किरीट दीप्ति का
तेजवन्त धनु-बाण लिए।
स्वागत में डोली भूमि, त्रस्त
भूधर ने हाहाकार किया,
वन की विशीर्ण अलकें झकोर
झंझा ने जयजयकार किया।
नाचती चतुर्दिक घूर्णि चली,
मैं जिस दिन चला विजय-पथ पर;
नीचे धरणी निर्वाक हुई,
सिहरा अशब्द ऊपर अम्बर।
मुक्ता ले सिन्धु शरण आया
मैंने जब किया सलिल-मन्थन,
मेरे इंगित पर उगल दिये
भू ने डर के फल, फूल, रतन।
दिग्विदिक सृष्टि के पर्ण-पर्ण पर
मैंने निज इतिहास लिखा,
दिग्विदिक लगी करने प्रदीप्त
मेरे पौरुष की अरुण शिखा।
मैं स्वर्ग-देश का जयी वीर,
भू पर छाया शासन मेरा;
हाँ, किया वहन नतभाल, दमित
मृगपति ने सिंहासन मेरा।
कर दलित चरण से अद्रि-भाल,
चीरते विपिन का मर्म सघन,
मैं विकट, धनुर्धर, जयी वीर,
था घूम रहा निर्भय रन-वन।
उर के मन्थन की दर्द-भरी
घड़ियों से थी पहचान नहीं,
सुमनों से हारे भीम शैल,
तबतक था इतना ज्ञान नहीं।
चूमे जिसको झुक अहंकार,
बह कली, स्यात, तब तक न खिली;
लज्जित हो अनल-किरीट, चाँदनी
तबतक थी ऐसी न मिली।
सहसा आई तुम मुझ अजेय को
हँसकर जय करनेवाली,
आधी मधु, आधी सुधा-सिक्त
चितवन का शर भरनेवाली।
मैं युवा सिंह से खेल रहा था
एक प्रात निर्झर-तट पर,
तुम उसी तीर पर माया-सी
लघु कनक-कुम्भ साजे कटि पर।
लघु कनक-कुम्भ कटि पर साजे,
दृग-बीच तरल अनुराग लिए;
चरणों में ईषत् अरुण, क्षीण
जलधौत अलक्तक-राग लिए।
सध्यःस्नाता, मद-भरित, सिक्त
सरसीरुद्द की अम्लान कली,
अक्षता, सद्य, पाताल-जनित
मदिरा की निर्झरिणी पतली।
मैं चकित देखने लगा तुम्हें,
तुमने विस्मित मुझको देखा;
पल-भर हम पढ़ते रहे पूर्व-
युग का विस्मृत, घूमिल लेखा।
तुम नई किरण-सी लगी, मुझे
सहसा अभाव का ध्यान हुआ,
जिस दिन देखा यह हरित स्रोत,
अपने ऊसर का ज्ञान हुआ।
मैं रहा देखता निर्निमेष, तुम
खड़ी रही अपलक-चितवन,
नस-नस जॄम्भा संचरित हुई,
संस्रस्त शिथिल उर के बन्धन।
सहसा बोली, ‘प्रियतम’ अधीर,
श्लथ कटि से गिरा कलस तेरा,
गिर गए बाण, गिर गया धनुष,
सिहरा यौवन का रस मेरा।
‘प्रियतम’, ‘प्रियतम’, रसकूक मधुर
कब की श्रुति-सी, कुछ जानी-सी,
‘प्रियतम’, ‘प्रियतम’, रूपसी कौन
तुम युग-युग की पहचानी-सी?
उमड़ा व्याकुल यौवन विबन्ध,
उर की तन्त्री झनकार उठी;
सब ओर सृष्टि में निकट-दूर
‘प्रियतम’ की मधुर पुकार उठी।
तुम अर्ध चेतना में बोली
"मैं खोज थकी, तुम आ न सके,
लद गई कुसुम से डाल, किन्तु,
अबतक तुम हृदय लगा न सके।
"सीखा यह निर्दय खेल कहाँ?
तुम तो न कभी थे निठुर पिया।’
मैं चकित, भ्रमित कुछ कह न सका,
मुख से निकले दो वर्ण, ‘प्रिया’।
दो वर्ण ‘प्रिया’, यह मधुर नाम
रसना की प्रथम ऋचा निर्मल,
उल्लसित हृदय की प्रथम बीचि,
सुरसरि का विन्दु प्रथम उज्ज्वल।
नर की यह चकित पुकार ‘प्रिया’,
जब पहली दृष्टि पड़ी रानी,
जिस दिन मन की कल्पना उतर
भू पर हो गई खड़ी रानी।
विस्मय की चकित पुकार ‘प्रिया’,
जब तुम नीलिमा गगन की थी;
जब कर-स्पर्श से दूर अगुण
रस-प्रतिमा स्वप्न मगन की थी
जब पुरुष-नयन में वह्नि नहीं,
था विस्मय-जड़ित कुतुक केवल
जब तुम अचुम्बिता, दूर-ध्वनित
थी किसी सुरा का मद-कलकल।
विस्यम की चकित पुकार ‘प्रिया’,
जिस दिन तुम थी केवल नारी;
नर की ग्रीवा का हार नहीं भुज-
बँधी वल्लरी सुकुमारी।
दो वर्ण, ‘प्रिया’, यह नाद उषा
सुनती शिखरों पर प्रथम उतर;
दो वर्ण ‘प्रिया’, कुछ मन्द-मन्द
इस ध्वनि से ध्वनित गहन अम्बर।
दो वर्ण ‘प्रिया’, संध्या सुनती
झुक अतल मौन सागर-तल में;
सुन-सुनकर हृदय पिघल जाता
इसका गुंजन दृग के जल में।
सुन रही दिशाएँ मौन खड़ी,
सुन रही मग्न नभ की बाला;
सुन रहे चराचर, किन्तु, एक
सुनता न पुरुष कहनेवाला।
अकलंक प्राण का सम्बोधन
सुनते जो कर्ण अजान प्रिये,
तो पुरुष-प्रिया के बीच आज
मिलता न एक व्यवधान प्रिये।
व्यवधान वासना का कराल
जगते जो आग लगाती है;
जो तप्त शाप-विष फूँक सरल
नयनों को हिंस्र बनाती है।
उन आँखों का व्यवधान, ज्ञात
जिनको न रहस्यों का गोपन,
देखा कुछ कहीं कि कह आतीं
सब कुछ प्राणों के भवन-भवन।
उत्सुक नर का व्यवधान, शृंग
लख जिसे सूझता आरोहण;
जल-राशि देख संतरण और
वन सघन देखकर अन्वेषण।
अम्बर का देख वितान उड़ा,
‘यह नील-नील ऊपर क्या है?’
मिट्टी खोदी यह सोच, "गुप्त
इस वसुधा के भीतर क्या है?"
जिस दिवस अवारित प्रेम-सदन में
विस्मित, चकित पुरुष आया,
माणिक्य देख धीरता तजी,
मुक्ता-सुवर्ण पर ललचाया।
क्या ले, क्या छोड़े, रत्नराशि का
भेद नहीं लघु जान सका,
वह लिया कि जिसमें तृप्ति नहीं,
पाना था जो वह पा न सका।
पा सका न मन का द्वार, लुब्ध
भग चला कुसुम का तन लेकर,
ग्रीवा-विलसित मन्दार-हार का
दलन किया चुम्बन लेकर।
जीवन पर प्रसारित खिली चाँदनी
को पीने की चाह इसे,
शशि का रस सकल उँडेल बुझे
वह कठिन, चिरन्तन दाह इसे।
तरुणी-उर को कर चूर्ण खोजने
लगा सुरभि का कोष कहाँ?
प्रतिमा विदीर्ण कर ढूँढ़ रहा,
वरदान कहाँ? सन्तोष कहाँ?
खोजते मोह का उत्स पुरुष ने
सारी आयु वृथा खोई;
इससे न अधिक कुछ जान सका,
तुम-सा न कहीं सुन्दर कोई।
सब ओर तीव्र-गति घूम रहा
युग-युग से व्यग्र पुरुष चंचल,
तुम चिर-चंचल के बीच खड़ी
प्रतिमा-सी सस्मित, मौन, अचल।
सुन्दर थी तुम जब पुरुष चला,
सुन्दर अब भी जब कल्प गया;
जा रहा सकल श्रम व्यर्थ, नहीं
मिलता आगे कुछ ज्ञान नया।
जब-जब फिर आता पुरुष श्रान्त,
तब तुम कहती रसमग्न ‘पिया’
मिलती न उसे फिर बात नई,
मुख से कढ़ते दो वर्ण, ‘प्रिया’!