भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मँझधार में रहे / हरीश निगम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:51, 8 मार्च 2011 का अवतरण
सूखे में
सूखे हम, बाढ़ में बहे,
जहाँ रहे हरदम मँझधार में रहे!
धूप सदा
कच्ची ही कान की रही
खेत-बैल-
फसलें परधान की रहीं
अपने तो कर्ज़ों के
क्रूर अजदहे!
चाहे हो
जनवरी चाहे हो जून
एक जून
रोटियाँ, एक जून सून
बाज़ों की घातों से
रात-दिन सहे!
मुट्ठी में
काग़ज़ से मुड़े-तुड़े हैं
टूट-टूट,
रोज़ कई बार जुड़े हैं
घुन खाई देहों में
लिए कहकहे!