भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शेष हैं परछाइयाँ / हरीश निगम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:51, 8 मार्च 2011 का अवतरण
फट गए
सारे गुलाबी चित्र
सूख कर
झरता हरापन
और उड़ती धूल
शेष हैं परछाइयाँ कुछ
दर्द वाले फूल
टीसते हैं
फाँस जैसे मित्र
एक आदमखोर-चुप्पी
लीलती दिन-रात
और
दमघोटू हवाएँ
हर कदम आघात,
खो गए
काले धुएँ में इत्र