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अगस्त 1955 / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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शहर में चाक-गरेबाँ हुए नापैद अबके
कोई करता ही नहीं ज़ब्त की ताकीद<ref>आदेश</ref> अबके
लुत्फ़ कर, ऐ निगहे-यार, कि ग़मवालों ने
हसरते-दिल की उठाई नहीं तमहीद<ref>भूमिका</ref> अबके
चाँद देखा तेरी आँखों में, न होठों पे शफ़क़
मिलती-जुलती है शबे-ग़म से तिरी दीद अबके
दिल दुखा है न वह पहला-सा, न जाँ तड़पी है
हम ही ग़ाफ़िल थे कि आई ही नहीं ईद अबके
फिर से बुझ जाएँगी शमएँ जो हवा तेज़ चली
लाके रक्खो सरे-महफ़िल कोई ख़ुरशीद<ref>सूरज</ref> अबके
कराची, 14 अगस्त 1955
शब्दार्थ
<references/>