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गर हिम्मत है तो बिस्मिल्लाह / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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कैसे मुमकिन है यार मेरे
मजनूँ तो बनो लेकिन तुमसे
इक संग न रस्मो-राह करे
हो कोहकनी<ref>पहाड़ खोदना</ref> का दावा भी
सर फोड़ने की हिम्मत भी न हो
हर इक को बुलाओ मक़तल में
और आप वहाँ से भाग रहो
बेहतर तो यही है जान मेरी
जिस जा सर धड़ की बाज़ी हो
वो इश्क़ की हो या ज़ंग की हो
गर हिम्मत है तो बिस्मिल्लाह<ref>अल्लाह का नाम लेकर शुरू करो</ref>
वरना अपने आपे में रहो
लाज़िम तो नहीं है हर कोई
मंसूर बने फ़रहाद बने
अलबत्ता इतना लाज़िम है
सच जान के जो भी राह चुने
बस एक उसी का हो के रहे

शब्दार्थ
<references/>