विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 5
पद 41 से 50 तक
(41)
कबहुँक अंब, अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करून-कथा चलाइ।1।
दीन, सब अंगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ।2।
बुझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरिऔ बनि जाइ।3।
जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ।
तरै तुलसिदास भव तव नाथ -गुन-गन-गाइ।4।
(42)
क्कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी।
जन कहाइ नाम लेत हौं, किये पन चातक ज्यों, प्यास प्रेम-पानकी।1।
सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करूना-निधानकी।
निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी।2।
बानि बिसारनसील है मानद अमानकी।
तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके, सपनेहुँ गति न आनकी।3।
(43)
जयति
सच्चिदव्यापकानंद परब्रह्म-पद विग्रह-व्यक्त लीलावतारी।
विकल ब्रह्मादि, सुर, सि, संकोचवश, सिद्ध, संकोचवश, विमल गुण-गेह नर-देह -धारी।1।
जयति
कोशलाधीश कल्याण कोशलसुता, कुशल कैवल्य-फल चारू चारी।
वेद-बोधित करम -धरम-धरनीधेनु, विप्र-सेवक साधु-मोदकारी।2।
जयति
ऋषि-मखपाल, शमन-सज्जन-साल, शापवश मुनिवधू-पापहारी।
भंजि भवचाप, दलि दाप भूपावली, सहित भृृगुनाथ नतमाथ भारी।3।
जयति
धारमिक-धुर, धी रघुवीर गुरू-मातु-पितु-बंधु- वचनानुसारी।
चित्रकुटाद्रि विन्ध्याद्रि दंडकविपिन, धन्यकृत पुन्यकानन-विहारी।4।
जयति
पाकारिसुत-काक-करतुति-फलदानि खनि गर्त गोपित विराधा।
दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी जनु विडंबित करी विश्वबाधा।5।
जयति
खर-त्रिशिर-दूषण चतुर्दश-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता।
गृन्ध्र-शबरी-भक्ति-विवश करूणासिंधु, चरित निरूपाधि, त्रिविधार्तिहर्ता ।6।
जयति
मद-अंध कुकबंध बधि, बालि बलशालि बधि, करन सुग्रीवराजा।
सुभट मर्कट-भालु-कटक-संघट सजत, नमत पदरावणानुत निवाजा।7।
जयति
पाथोधि-कृत-सेतु कौतुक हेतु, काल-मन-अगम लई ललकि लंका।।
सकुल,सानुज,सदल दलित दशकंठ रण, लोक-लोकप किये रहित-शंका।8।
जयति
सौमित्र-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारूढ़ निज राजधानी।
दासतुलसी मुदित अवधवासी सकल, राम भे भूप वैदेहि रानी।9।।
(45)
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन
हरण भवभय दारूणं।
नवकंज लोचन ,कंज-मुख ,
कर-कंज पद कंजारूणं।
कंदर्प अगणित अमित छवि,
नवनील नीरद सुंदरं।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि
नौमि जनक सुतावरं।।
भजु दीनबंधु दिनेश
दानव-दैत्य-वंश-निकंदनं।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद
दशरथ-नंदनं।।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू
उदारू अंग विभुषणं।
आजानुभुज शर-चाप-धर,
संग्राम-जित-खरदूषणं।।
इति वदति तुलसीदास शंकर-
शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय कंज निवास करू,
कामादि खल दल गंजनं।।
(46)
श्रीराम सदा
राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, मूढ़ मन, बार बारं।
सकल सौभाग्य-सुख-खानि जिय जानि शठ, मानि विश्वास वद वेदसारं।।
कोशलेन्द्र नव-नीलकंजाभतनु, मदन-रिपु-कंजहृददि-चंचरीकं।
जानकीरवन सुखभवन भुवनैकप्रभु, समर-भंजन, परम कारूनीकं।।
दनुज-वन-धूमधुज, पीन आजानुभुज, दंड-कोदंडवर चंड बानं।
अरूनकर चरण मुख नयन राजीव, गुन-अयन, बहु मयन-शोभा-निधानं।।
वासनावृंद-कैरव-दिवाकर, काम-क्रोध-मद-कंज-कानन-तुषारं।ं
लोभ अति मत्त नागेन्द्र पंचाननं भक्तहित हरण संसार-भारं।।
केशवं, क्लेशहं, केश-वंदित पद-द्वंद्व मंदाकिनी-मूलभूतं।।
सर्वदानंद-संदोह, मोहपहं, घोर-संसार-पाथोधि-पोतं।।
शोक-संदेह-पाथोदपटलानिलं, पाप-पर्वत-कठिन-कुलिशरूपं।
संतजन-कामधुक-धेनु, विश्रामप्रद, नाम कलि-कलुष-भंजन अनूपं।।
धर्म-कल्पद्रुमाराम, हरिधाम-पभि संबलं, मूलमिदमेव एकं।
भक्ति-वैराग्य-विज्ञान-शम-दान-दम, नाम आधीन साधक अनेकं।।
तेन नप्तं, हुतं, दत्तमेवाखिलं, तेन सर्वं कृतं कर्मजालं।
येन श्रीरामनामामृतं पानकृतमनिशमनवद्यमवलोक्य कालं।
श्रवपच,खल, भिल्ल, यवनादि हरिलोकगत,
नामबल विपुल मति मल न परसी।
त्यागि सब आस, संत्रास, भवपास, असि निसित हरिनाम जपु दासतुलसी।।
(47)
ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन।
हरन दुखदुंद गोबिेंद आनन्दघन।।
अचरचर रूप हरि, सरबगत, सरबदा बसत, इति बासना धूप दीजै।
दीप निजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम, प्रौढ़ अभिमान चितबृत्ति छीजै।।
भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी।
प्रेम तांबूल गत शूल संशय सकल, विपुल भव-बासना-बीजहारी।।
अशुभ-शुभकर्म-घृतपुर्ण दशवर्तिका, त्याग पावक, सतोगुण प्रकासं।
भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली, अर्पि नीराजनं जगनिवासं।।
बिमल हृदि-भवन कृत शांति-पर्यक शुभ, शयन विश्राम श्रीरामराया।
क्षमा-करूणा प्रमुख तत्र परिचारिका, यत्र हरि तत्र नहिं भेद-माया।।
एहि आरती-निरत सनकादि, श्रुति , शेष, शिव, देवारिषि, अखिलमुनि तत्व-दरसी।
करै सोइ तरै, परिहरै कामादि मल, वदति इति अमलमति-दास तुलसी।।
(49)
देव-
दनुज-बन-दहन, गुन-गहन, गोविंद नंदादि-आनंद-दातऽविनाशी।
शंभु,शिव,रूद्र,शंकर,भयंकर, भीम,घोर, तेजायतन, क्रोध-राशी।1।
अनँत, भगवंत-जगदंत-अंतक-त्रास-शमन,श्रीरमन, भुवनाभिरामं।
भुधराधीश जगदीश ईशान विज्ञानघन, ज्ञान-कल्यान-धामं।2।
वामनाव्यक्त, पावन, परावर, विभो, प्रगट परमातमा, प्रकृति-स्वामी।
चंद्रशेखर, शूलपाणि, हर, अनध, अज,अमित, अविछिन्न, वृषभेश-गामी।3।
नीलजलदाभ तनु श्याम, बहु काम छवि राम राजीवलोचन कृपाला।
कंबु-कर्पूर-वपु धवल, निर्मल मौलि जटा, सुर-तटिनि,सित सुमन माला।4।
वसन किंजल्कधर,चक्र-सारंग-रद-कंज-कौमोदकी अति विशाला।
मार-करि-मत्त- मृगराज, त्रैनैन, हर, नौमि अपहरण संसार-जाला।5।
कृष्ण,करूणाभवन, दवन कालीय खल, विपुल कंसादि निर्वशकारी।
त्रिपुर-मद-भंगकर,मत्तज-चर्मधर, अन्धकोरग-ग्रसन पन्नगारी।6।
ब्रह्म, व्यापक, अकल, सकल, पर परमहित, ग्यान गोतीत, गुण-वृत्ति- हर्ता।
सिंधुसुत-गर्व-गिरि-वज्र, गौरीश, भव, दक्ष-मख अखिल विध्वंसकर्ता।7।
भक्तिप्रिय, भक्तजन-कामधुक धेनु, हरि हरण दुुर्घट विकट विपति भारी।
सुखद, नर्मद, वरद,विरज, अनवद्यऽखिल, विपिन-आनंद-वीथिन-विहारी।8।
रूचिर हरिशंकरी नाम-मंत्रावली द्वंद्वदुख हरनि, आनंदखानी।
विष्णु-शिव-लोक-सोपान-सम सर्वदा वदति तुलसीदास विशुद्ध बानी।9।