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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 5

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दोहा संख्या 41 से 50

श्री हिय फाटहूँ फूटहुँ नयन जरउ सो तन केहि काम।
द्रवहिं स्त्रवहिं पुलकइ नहीं तुलसी सुमिरत राम।41।

रामहिं सुमिरत रन भिरत देत परत गुरू पायँ।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ।42।

हृदय से कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत।
कर न राम गुन गान जीह सेा दादुर जीह सम।43।

स्त्रवै न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस।
ते नयना जनि देहु राम करहु बरू आँधरो।44।

रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो ।
तिन आँखिन में धूरि भरि भरि मूठी मेलिये।45।

बारक सुमिरत तोहि होहि तिन्हहि सम्मुख सुखद ।
क्यों न सँभारहि मोहि दय सिंधु दसरत्थ के।46।

साहिब हेात सरोष सेवक को अपराध सुनि।
अपने देखे देाष सपनेहुँ राम न उर धरे।47।

तुलसी रामहि तें सेवक की रूचि मीठि।
सीतापति से साहिबहि कैसे दीजै पीठि।48।

तुलसी जाके होयगी अंतर बाहिर दीठि।
सेा कि कृपालुजि देइगो केवटपालहि पीठि।49।

प्रभु तरू तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान।50।