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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 14

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दोहा संख्या 131 से 140


तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन विश्राम।
 जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।131।

बिनु सतसंग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ़ अनुराग।132।

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।133।

अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
 भजहु राम रघुबीर करूनाकर सुंदर सुखद।134।

भाव बस्य भगवान सुख निधान करूना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।135।

कहहिं बिमलमति संत बेद पुरान बिचारि अस।
द्रवहिं जानकी कंत तब छूटै संसार दुख।136।

बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।137।

रामचंद्र के भजन बिनु जेा चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान।138।

जरउ सो संपति सदन सुखु सुह्दय मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो रामपद करइ न सहस सहाइ।139।

स्ेाइ साधु गुरू समुझि सिखि राम भगति थिरताई ।
लरिकाई को पैरिबो तुलसी बिसरि न जाई।140।