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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 24

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दोहा संख्या 231 से 240


सुख मुद मंगल कुमुद बिधु सुगुन सरोरूह भानु।
करहु काज सब सिद्धि सुभ आनि हिएँ हनुमानु।231।

 सकल काज सुभ समउ भल सगुन सुमंगल जानु।
कीरति बिजय बिभूति भलि हियँ हनुमानहि आनु।232।

सूर सिरोमनि साहसी सुमति समीर कुमार।
सुमिरत सब सुख संपदा मुद मंगल दातार।233।

तुलसी तनु सर सुख जलज भुज रूज गज बरजोर।
दलत दयानिधि देखिये कपि केसरी किसोर।234।
(गोस्वामी जी की बाँह मे रोग हो गया था जो श्री हनुमान जी की स्तुति से अच्छाा हो गया । यह दोहे उसी प्रसंग के कहे जाते हैं।)

भुुज तरू कोटर रोग अहि बरबस कियो प्रवेस।
 बिहगराज बाहन तुरत काढ़िअ मिटै कलेस।235।

बाहु बिटप सुख बिहँग थलु लगी कुपीर कुआगि।
राम कृपा जल सींचिऐ बेगि दीन हित लागि।236।

 मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हाति कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न।237।

जरत सकल सुर बृंद सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस।238।

बासर ढासनि के ढका रजनीं चहुँ दिसि चोर।
संकर निज पुर राखिऐ चितै सुलोचन कोर।239।

 अपनी बीसीं आपुहीं पुरिहिं लगाए हाथ।
 केहि बिधि बिनती बिस्व की करौं बिस्व के नाथ।240।