भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास/ पृष्ठ 28

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:18, 14 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=द…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 271 से 280


ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारूनी कहहु काह उपचार।271।

ताहि के संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
 भूत द्रोह रत माहबस राम बिमुख रति काम।272।

 कहत कठिन समुझत कठिन साधक कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।273।

खल प्रबोध जग सोधमन को निरोध कुलनसोध करह।
 ते फोकट पचि मरहिं सपनेहुँ सुख न सुबोध।274।

कोउ बिश्राम कि पव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ।275।

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि।276।

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास।277।

 जौं घन बरषै समय सिर जौं भरि जनम उदास।
तुलसी या चित चातकहि तऊ तिहारी आस।278।

चातक तुलसी के मतें स्वातिहुँ पिऐ न पानि।
प्रेम तृषा बाढ़ति भली घटें घटैगी आनि।279।

रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गे अंग ।
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रूचि रंग।280।