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बाँस-बाँस पानी है/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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बाँस-बाँस पानी है

बाँस-बाँस पानी है
कागज की नाँव
पैसोें पर डोल रहे
अंगद के पाँव

सुविधाऐं माँग रही
मनमाने दाम,
खोखली व्यवस्था के
अश्व बेलगाम,
कौवों की काँव काँव
राजा के गाँव

उगल रह होंठों से
पल पल पर ज्वाल
 लोकतंत्र घाटी के
अगिया बैताल
शब्दों का सम्मोहन
 वादों की छाँव

झूठों की राजसभा
सच्चों को जेल
 अपराधी खेल रहे
सत्ता का खेल
 रोटी के लाले हैं
व्यर्थ के दिखाव
 बाँस-बाँस पानी है
कागज की नाँव