भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भए कबीर उदास / हबीब जालिब

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:35, 14 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = हबीब जालिब }} {{KKCatNazm}} <poem> इक पटरी पर सर्दी में अपनी त…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए
दूजा जुल्फ़ों की छाँव में सुख की सेज पे सोए
राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास
भए कबीर उदास ।
 
ऊँचे-ऊँचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएँ
क़दम-क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएँ
धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास
भए कबीर उदास ।
 
गीत लिखाएँ, पैसे ना दें फिल्म नगर के लोग
उनके घर बाजे शहनाई, लेखक के घर सोग
गायक सुर में क्योंकर गाए, क्यों ना काटे घास
भए कबीर उदास ।
 
कल तक जो था हाल हमारा हाल वही हैं आज
‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज
फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास
भए कबीर उदास ।