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बिखरते शब्द / कृष्ण कुमार यादव

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शंकर जी के डमरू से
निकले डम-डम अपरम्पार
शब्दों का अनंत संसार
शब्द हैं तो सृजन है
साहित्य है, संस्कृति है
पर लगता है
शब्द को लग गई
किसी की बुरी नज़र
बार-बार सोचता हूँ
लगा दूँ एक काला टीका
शब्द के माथे पर

उत्तर संरचनावाद और
विखंडनवाद के इस दौर में
शब्द बिखर रहे हैं
हावी होने लगा है
उन पर उपभोक्तावाद
शब्दों की जगह
अब शोरगुल हावी है ।