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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 16
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सुन्दर काण्ड
( अशोक वन )
बासव-बरून बिधि-बनतें सुहावनो,
दसाननको काननु बसंत को सिंगारू सेा।
समय पुराने पात परत, डरत बातु,
पालत लालत रति-मारके बिहारू सेा।।
देखें बर बापिका तड़ाग बागको बनाड,
रागबस भो बिरागी पवनकुमारू सो।
सीयकी दसा बिलोकि बिटप असोक तर,
‘तुलसी’ बिलोक्यो सो तिलोक-सोक -सारू सो।।
मली मेघमाल, बनपाल बिकराल भट,
नींके सब काल सींचेैं सुधासार नीरके।
मंघनाद तें दुलारो, प्रान तें पियारो बागु,
अति अनुरागु जियँ जातुधान धीर कें।।
‘तुलसी’ सो जानि-सुनि, सीयकेा दरसु पाइ,
पैठेा बाटिकाँ बजाइ बल रघुबीर कें।
बिद्यमान देखत दसाननको काननु सेा ।
तहस -नहस कियो साहसी समीर कें।।