भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 9

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:10, 17 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
(वन के मार्ग में)

             
प्ुारतें निकसी रघुबीर बधू धरि धीर दए मगमें डग द्वै।

झलकीं भरि भाल कनीं जलकी, पुट सूखि गए मधुराधर वै।।

 फिरि बूझति हैं, चलनो अब केतिक, पर्नककुटी करिहैं कित ह्वै?

 तियकी लखि आतुरता पियकी अँखियाँ अति चारू चलीं जल च्वै।11।

 

जलको गए लक्खनु, हैं लरिका,
 
परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े।

पोेंछि पसेउ बयारि करौं ,

अरू पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े।।

तुलसी रघुबीर प्रियाश्रम जानि कै

बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।

जानकीं नाहको नेहु लख्यो,
 
पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े।12।
 

ठाढ़े हैं नवद्रुमडार गहें,

धनु काँधे धरें, कर सायकु लै।

बिकटी भृकुटी, बड़री अँखियाँ,

अनमोल कपोलन की छबि है।।

तुलसी अस मूरति आनु हिएँ,

जड! डारू धौं प्रान निछावरि कै।।

श्रमसीकर साँवरि देह लसै,
 
मनेा रासि महा तम तारकमै।13।


जलजनयन, जलजानन जटा है सिर,

 जौबन -उमंग अंग उदित उदार है।।

साँवरे-गोरेके बीच भामिनी सुदामिनी-सी,

 मुनिपट धारैं , उर फूलनिके हार हैं।।

करनि सरासन सिलीमुख, निषंग कटि,

 अति ही अनूप काहू भूपके कुमार है।

तुलसी बिलोकि कै तिलोकके तिलक तीनि

 रहे नरनारि ज्यों चितेरे चित्रसार हैं।14।


आगे साँवरो कुँवरू गोरो पाछें-पाछें,

आछे मुनिवेष धरें, लाजत अनंग हैं।

 बान बिसिषासन, बसन बनही के कटि ,

 कसे हैं बनाइ, नीके राजत निषंग हैं।।

साथ निसिनाथ मुखी पाथनाथनंदिनी-सी,

तुलसी बिलोकें चितु लाइ लेत संग है।

आनँद उमंग मन, जौबन-उमंग तन,

रूपकी उमंग उमगत अंग-अंग है।15।