कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 8
(गुहका पाद-प्रक्षालन)
नाम अजामिल -से खल कोटि अपार नदीं भव बूड़त काढ़ें।
जो सुमिरें गिरि मेरू सिलाकन होेत, अजाखुर बारिधि बाढ़े।।
तुलसी जेहि के पद पंकज तें प्रगटी तटिनी, जो हरै अघ गाढ़े।।
ते प्रभु या सरिता तरिबे कहुँ मागत नाव करारे ह्वै ठाढ़े।5।
एहि घाटतें थोरिक दूरि अहै कटि लौं जलु थाह दिखाइहौं जू।।
परसें पगघूरि तरै तरनी, घरनी घर क्यों समुझाइहौं जू।।
तुलसी अवलंबु न और कछू, लरिका केहि भाँति जिआइहौंजू।
बरू मारिए मोहि, बिना पग धोएँ हौं नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू।6।
रावरे देाषु न पायनकेा, पगधूरिको भूरि प्रभाउ महा है।
पाहन तें बन-बाहनु काठको कोमल है, जलु खाइ रहा है।।
पावन पाय पखारि कै नाव चढ़ाइहौं, आयसु होत कहा है।
तुलसी सुनि केवटके बर बैन हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है।7।