भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जलती आँखें कसी मुट्ठियाँ / विजय किशोर मानव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:26, 20 मार्च 2011 का अवतरण
जलती आँखें,
कसी मुट्ठियाँ
भटक गई या हुई पालतू
इस इमारतों के
जंगल में
ऐसी दौड़
कि सर ही सर हैं
पाँवों के नीचे कंधे हैं
या तो आदमखोर नजर है
या फिर लोग निपट अंधे हैं
कौम कि
जैसे भेड़ बकरियाँ
पैदा होते हुई फ़ालतू
होने चली जिबह मकतल में
जिसे पा गए
उस पर छाए
सब में गुण हैं अमरबेल के
सीढ़ी अपनी, साँप और के
ऐसे हैं कायदे
खेल के
मिली जुली
हो रहीं कुश्तियाँ
ऊपर वाले, देख हाल तू
कोई नियम नहीं दंगल में