अपनी मीरा से (सॉनेट) / ज़िया फतेहाबादी
कहूँ मैं आह क्यूँकर, मुझ को तुझ से प्यार है मीरा
तसव्वुर से तेरे दिन रात हमआगोश रहता हूँ
कुछ ऐसा कैफ्परवर इश्क का आज़ार है मीरा
कि इस नशे में हरदम बेखुद ओ मदहोश रहता हूँ
ना दुनिया की ख़बर मुझ को, ना अपना होश है मुझ को
बस इतना जानता हूँ, तू है, तेरी याद है मीरा
ना फ़िक्र ए आलम ए फ़र्दा, न रंज ओ दोश है मुझ को
मुहब्बत वाक़ई हर क़ैद से आज़ाद है मीरा
मैं कह तो दूँ मगर मेरा दिल ए मजबूर डरता है
कि ये जुर्रत ना बाईस हो परीशानी ओ वहशत का
यही ग़म मेरी उम्मीदों में रंग ए यास भरता है
यही ग़म रहबर है मंज़िल ए दर्द ए मुहब्बत का
तुझे मालूम ही है मेरे दिल पर क्या गुज़रती है
तो फिर क्यूँ इम्तिहान लेकर मुझे नाकाम करती है