निर्वाण / ज़िया फतेहाबादी
मैं आज मंज़िल-ए मकसूद पा के दम लूँगा
ये दश्त ओ कोह ओ बयाबाँ ओ खारज़ार, कोई
खलल न डाल सकेगा मेरे इरादों में
मेरे इरादे हैं मज़बूत संग-ओ आहन से
हिरास-ओ खौफ़ से मैं दिल को कर चुका हूँ पाक
भुला चुका हूँ मैं माज़ी की कोशिश-ए नाकाम
क़दम जो आगे बढ़ा है वो रुक नहीं सकता
मैं आज मंज़िल ए मकसूद पा के दम लूँगा
ये किस ने छेड़ दिया साज़ ए इशरत-ए फ़रदा ?
ये मेरी रूह को तडपा दिया है फिर किसने
सरूर-ओ कैफ से फिर झुक गईं मेरी आँखें
दिमाग़-ओ ज़हन पे अब्र ए ख़ुमार छाया है
हसीं ख़वाबों की दुनिया में खो गया हूँ मैं
नवीद-ए इशरत-ए फ़रदा न दे मुझे ऐ दिल !
कि तेरे नगमों से आती है पाँव में लगज़िश
मुझे तो हाल में रहना है, ज़िंदगी है यही,
हदीस-ए जन्नत-ओ हूर-ओ मलक दुरुस्त, मगर
सुनूँ मैं तेरे फ़साने कहाँ मुझे फुरसत
अभी तो मंज़िल-ए मकसूद दूर है मेरी
बिछे हुए हैं हर इक सिमत राह में काँटे
जो आ रहे हैं नज़र फूल चश्म ए ज़ाहिर को,
फ़रेब-ए इशरत-ए फ़रदा न दे मुझे ऐ दिल !
फ़रेबकारी ए दुनिया है मुझ पर आईना
यहाँ तो नूर भी खोया हुआ है ज़ुल्मत में,
मैं इस चमन में रहूँ मुझ से हो नहीं सकता
बजाए ज़ज्बा-ए उलफ़त है दिल में अब नफ़रत,
निशान ए मंज़िल-ए मकसूद मिल गया मुझ को
मैं आज मंज़िल-ए मकसूद पा के दम लूँगा !