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पत्थर और रस्सी / कौशल किशोर

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तुम पत्थर
मैं रस्सी
हमारा क्या मुकाबला ?
तुम ठोस, सख़्त और मज़बूत
मैं कोमल, मुलायम और लचकदार
तुम्हारे घनत्व की हमसे क्या बराबरी ?

तुम मन्दिर में स्थापित
मनों दूध से रोज नहाते
तुम्हारे निशाने पर
डाल से लटकता फल
बैठी है जिस पर भूखी चिड़िया
चोंच मारने को तैयार
फल गिरता है धरती पर
और ‘चीं....चीं’ करती चिड़िया
घायल कहीं दूर
यही तुम्हारी खासियत है
चोट देना और प्रहार करना
ज़ख़्म देना और लहूलुहान करना
निष्ठुर हो
कठोर हो
फिर भी पूजे जाते हो

तुम कुएँ की जगत पर चित्त लेटे
अपना चट्टानी सीना फैलाए
और मैं बँधा तुम्हारे सीने से रगड़ खाता
पर जंग तो जंग है
और यह कोई नई नहीं
आदिम काल से चली आ रही

हम दास बनाए गए
और तुम मालिक
हम असभ्य कहलाए
और तुम सभ्य
विभाजन रेखा खींच दी गई हमारे बीच
हम रह गए जहाँ थे
और तुम हड़प चले गए उस पार

जानता हूँ
मैं नहीं बचूँगा
कुछ भी नहीं बचेगा
नष्ट हो जायेगा मेरा रेशा-रेशा
अस्तित्वहीन हो जाऊँगा
पर किसी ख़ुशफ़हमी में नहीं रहना
तुम भी नहीं बचोगे साबुत
मिटते-मिटते भी
मैं छोड़ जाऊँगा
तुम्हारे सीने पर अपना निशान

रक्तबीज हैं हम
फिर-फिर लौटेंगे
स्पार्टकस बन कर
वे धारियाँ जो हमने बनाई हैं
गहराती जाएँगी दिन-दिन ।