भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुस्तक मेले में / कौशल किशोर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:20, 23 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कौशल किशोर |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ज्ञान के इस संसार …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज्ञान के इस संसार में
बहुत बौना
पढ़ ले चाहे जितना भी
वह होता है थोड़ा ही

कैसा है यह समुद्र ?
पार करना तो दूर
एक अंजुरी पानी भी
नहीं पी पाया अब तक
रह गया प्यासा का प्यासा
कुछ-कुछ ऐसा ही अहसास था

कहीं गहरे अंतर्मन में
घूमती मेरी इंद्रियां थीं
शब्द संवेदनाओं के तन्तुओं को जोडती
इधर ज्ञान
उधर विज्ञान
बच्चों के लिए अलग
बड़े-बड़े हरफ़ों में
कुछ कार्टून पुस्तकें
कुछ सचित्र
ऐसी भी सामग्री
जो रोमांच से भर दे

मेरे साथ थी पत्नी
बेटा भी
किसी स्टॉल पर मैं अटकता
तो बेटा छिटक जाता
अपनी मनपसन्द की पुस्तकें खोजता
सी०डी० तलाशता
पत्नी खो जाती प्रेमचंद या शरतचंद में

तभी इस्मत चुगताई अपनेपन से झिझोड़ोती
दूर से देखती मन्नू और मैत्रेयी
बाट जोहती
दर्द बांटती तस्लीमा थी
कहती ज़ोर-ज़ोर से
औरतों के लिए कोई देश नहीं होता
कौन गहरा है
दर्द का सागर
या शब्दों का सागर ?

प्रश्न अनुत्तरित है आज भी ।