Last modified on 25 मार्च 2011, at 12:57

गोपी बिरह(राग मलार-4) / तुलसीदास

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:57, 25 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास |संग्रह=श्रीकृष्ण गीतावली / तुलसीदास }}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


गोपी बिरह(राग मलार-4)

()

ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै।
 अलि, पहिचानि प्रेमकी परिमिति उतरू फेरि नहिं दीजै।1।

जननी जनक जरठ जाने , जन परिजन लोगु न छीजै।
 दै पठयो पहिलो बिढ़तो ब्रज, सादर सिर धरि लीजै।2।

कंस मारि जदुबंस सुखी कियो, स्त्रवन सुजस सुनि जीजै।
 तुलसी त्यों-त्यों होइगी गरूई, ज्यों-ज्यों कामरि भीजै।3।


()

कान्ह ,अलि , भए नए गुरू ग्यानी।
तुम्हरे कहत आपने समुझत बात सही उर आनी।1।

 लिए अपनाइ लाइ चंदन तन, कछु कटु चाह उड़ानी।
जरी सुँधाइ कूबरी कौतुक करि जोगी बघा-जुड़ानी।2।

ब्रज बसि रास बिलास, मधुपुरी चेरी सों रति मानी।
जोग जोग ग्वालिनि बियोगिनि जान सिरोमनि जानी।3।

 कहिबे कछू, कछू कहि जैहै, रहौ आलि! अरगानी।
तुलसी हाथ पराएँ प्रीतम, तुम्ह प्रिय हाथ बिकानी।4।