भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ुदसरी का भरम न खुल जाए / ज़िया फतेहाबादी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:49, 27 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़ुदसरी क…)
ख़ुदसरी का भरम न खुल जाए ।
आदमी का भरम न खुल जाए ।
तीरगी का तिलिस्म टूट गया,
रोशनी का भरम न खुल जाए ।
मौत का राज़ फ़ाश तो कर दूँ,
ज़िन्दगी का भरम न खुल जाए ।
हुस्न मुख़तार और मैं मजबूर,
आशिक़ी का भरम न खुल जाए ।
कौन दीवानगी को दे इलज़ाम,
आगही का भरम न खुल जाए ।
कीजिए रहबरों का क्या शिकवा,
गुमरही का भरम न खुल जाए ।
इम्तिहान-ए वफ़ा दुरुस्त मगर,
जोर ही का भरम न खुल जाए ।
ऐ मुगन्नी ग़ज़ल ’ज़िया’ की न छेड़
शायरी का भरम ही न खुल जाए ।