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जाड़े की धूप / पूर्णिमा वर्मन

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अलसाई

इतराई

पेड़ों के पत्तों से

गिर-गिर के बिखरायी

किरनों का गुलदस्ता

जाड़े की धूप ।


अनमनी

गुनगुनी

नीले आकाश तले

धरती संग छुईमुई

सड़क-सड़क दूर तलक

जाड़े की धूप ।


सोने के

हिरनों-सी

सरपट चौकड़ी भरी

किसे पता कहाँ तलक

एकाकी सूना पथ

जाड़े की धूप ।


सरसों-सी

खिली-खिली

अनजाने रस्तों पर

खरहे-सी दौड़ पड़ी

क्वाँर का कुँआरापन

जाड़े की धूप ।


रौशनता

गतिमयता

चटकाती बढ़ी चली

यहाँ-वहाँ सभी कहाँ

पहियों की प्रतिद्वन्द्वी

जाड़े की धूप ।