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वसन्त / केदारनाथ अग्रवाल
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हिम के हत संकुचित प्रकृति अब फूली
रूप-राग-रस-गंध-भार भर झूली
रंगों से अभिभूत हुई चट्टानें
जड़ता में जागीं जीवन की तानें
नभ में भी आलोक-नील गहराया
सागर ने संगीत तरंगित गाया
आठ रूप शिव के, समाधि को त्यागे
मृण्मय अवनी के अंगों में जागे
वासंतिक वैभव यौवन पर आया
हरा-भरा संसार खिला मुस्काया ।